संमदर के किनारे होने के कारण मुंबई में जितने विदेशी समुदाय आकर रहे उतने शायद पूरे भारत में कहीं नहीं आए होंगे.
पारसी, पुर्तगाली, जर्मन लोगों के साथ-साथ मुंबई में इसराइल से आया यहूदी समुदाय भी रहता है.
लेकिन ज़िंदगी भर इसराइल में आख़िरी सांस लेने का सपना देखने वाले मुंबई के यहूदी समुदाय के कई लोग कभी भी वापस अपने वतन नहीं लौट पाते और यहीं आख़िरी सांस लेते हैं और यहूदी धर्म के अनुसार जब उन्हें दफ़नाया जाता है तो उनकी कब्र पर पारंपरिक हिब्रू भाषा में पैग़ाम लिखा जाता है.
हैरानी की बात ये है कि हिब्रू में पैग़ाम लिखने का काम उत्तर प्रदेश के जौनपुर का एक शख्स करता है.
5000 साल पहले मुंबई आए यहूदियों के आख़िरी सफ़र में उनकी कब्रों पर ज़िंदगी का अंतिम पैग़ाम लिखने वाले यासीन मोहम्मद दशकों से यहूदियों की कब्रों पर हिब्रू में इबारत लिख रहे हैं.
40 साल का नाता
मुंबई के वर्ली इलाके में मौजूद यहूदी कब्रिस्तान में काम करने वाले यासीन बताते हैं, "मैं यहां 40 साल से हूं और पारसी लोगों की कब्रों पर इबारत लिख रहा हूं. मुझे आज तक नहीं लगा कि हमारे धार्मिक मतभेद हैं. इन लोगों ने मुझे बहुत प्यार दिया और अपनी भाषा भी सिखाई."
उत्तर प्रदेश के जौनपुर से यासीन मोहम्मद जब मुंबई आए तो वे पत्थर की मूर्तियां तराशा करते थे.
1965 में उनकी मुलाक़ात हुई एक यहूदी मू्र्तिकार सोलोमन से जिन्होंने यासीन को हिब्रू सिखा दी और वो कब्रों पर इबारत लिखने का काम करने लगे.
हिब्रू-उर्दू एक है
यासीन बताते हैं कि जब वो मुंबई आए थे तो उन्हें सिर्फ़ उर्दू और हिंदी का ज्ञान था और कामचलाऊ अंग्रेजी समझ-बोल-लिख लेते थे. लेकिन जब हिब्रू सीखने की बारी आई तो उन्हें तकलीफ़ नहीं हुई.
यासीन कहते हैं, "हिब्रू सीखने में मुझे ज्यादा वक़्त नहीं लगा क्योंकि ये उर्दू से मिलती-जुलती है."
इस्लाम और यहूदी धर्मों में तनाव से दूर यासीन की बूढ़ी आंखों में एक बार इसराइल देखने का सपना है.
इतना कि अब वो जौनपुर भी नहीं लौटना चाहते.
यासीन कहते हैं, "इसराइल जाने की इच्छा तो है, एक बार मौका भी लगा था पर जा नहीं पाया बाकी जौनपुर जाकर क्या करेंगे वहां क्या रखा है."
भारत में यहूदी
मुंबई के यहूदी समुदाय के लोगों ने बताया कि भारत में उनका इतिहास दो हज़ार साल पुराना है. पहले उनकी संख्या कुछ अधिक थी लेकिन अब देशभर में सिर्फ़ पांच हज़ार यहूदी ही बचे हैं. उनमें से कुछ में इसराइल लौटने की इच्छा तो है लेकिन यहां भी वो एक सुकून भरी ज़िंदगी बिता रहे हैं.
यहूदी संस्कृति के शिक्षक शारोन मीर ने बताया, " हम यहां ख़ुश हैं और बेहतर ज़िंदगी जी रहे हैं. हम चाहते हैं कि हम आख़िरी सांस इसराइल में लें, क्योंकि ये हमारे धर्म में लिखा है लेकिन हर इंसान तो वहां नहीं जा सकता."
एक मुसलमान के हाथों कब्रों पर इबारत लिखे जाने के बारे में शारोन बड़ा सधा हुआ जवाब देते हैं," मुझे गॉड का भी मजहब मालूम नहीं है पर उसको भी तो मैं मानता हूं."
यासीन ने अपना सारा जीवन इसी काम में बिता दिया और अब वो अपनी अगली पीढ़ी को भी इसके तैयार कर रहे हैं. उनका बेटा भविष्य में उनकी जगह लेगा, क्योंकि अब उन्हें चलने-फिरने में दिक्कत होने लगी है.
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